मंजिल का भ्रम
जीवन की राह
आसान बनाने की चाह मे
जीवन कठिन होता गया।
कुछ जीवन के सपने
बुन रहा था,
खुद ही उलझ गया।
जितना सुलझान चाहा,
उतना ही उलझता गया,
मेरा हर मंजिल
पढ़ाव बन कर रह गया,
इसे अपनी कोई भूल कहूँ,
या भाग्य का खेल,
या ईश्वर की लीला,
जो मंजिल का भ्रम हो गया।
कई सवाल
अधुरी कहानियों में उग गया।
पढ़ाव भी रहा तो ऐसा,
जहाँ कोई सांस सकून का
मै न ले सका।
खुद के साथ अजनबी की तरह
मै गुमसुम रहने लगा।
मेरा हाल ऐसा रहा कि
जो भी मिला वो मुझे
अवारा मसीहा समझने लगा।
भरी भीड़ में फकीर तरह
मै भटक गया।
___राजेश मिश्रा_
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