मेरे सृजन की संज्ञा
जो सत्य में नही
उसे स्वप्नों में पा लेता हूँ,
कभी भूत में भटक जाता हूँ,
कभी भविष्य में खो जाता हूँ,
अन्तर्मन के कल्पना लोक में
नित्य सृजन मैं करता हूँ,
तुम्हारी याद और मेरी तन्हाई
मेरे सृजन की संज्ञा तुम हो,
कल्पना लोक के विचरण में
मेरे संग केवल तुम हो,
मेरे खुशियों की प्रेरणा तुम हो,
मेरे अन्तर्मन की किरण तो तुम हो,
मेरे सुबह की प्रभा तुम हो,
मेरे शाम की संध्या तुम हो,
मेरे रात की चांदनी तुम हो,
मरे उजाले की किरण तो तुम हो,
मेरे जीवन का राग तुम हो,
मेरे साजों का धुन तुम हो,
मेरा सुर संगीत तुम हो,
मेरे दिल के धड़कन में तुम बसी हो,
मेरे स्वप्नो में तुम निहित हो,
मेरे जीवन की किरण तो तुम हो,
इसे कोई पागल दिल की कविता कहे,
या मेरे प्रीत का गीत कहे,
यह मेरे अन्तर्मन की अन्तर्ध्वनी है,
इसे चाहे जो भी नाम मिले,
शब्दों में हमने पिरो दिया,
हृदय में जो भी भाव उठे,
स्वप्नो में तुम्हारे साथ रहे,
सत्य में साथ मिले न मिले।
___राजेश मिश्रा_
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