सनातन हिन्दू धर्म का अध्ययन जरूरी क्यो?

सनातन हिन्दूओं को अपने सनातन हिन्दू धर्म और संस्कृति के शिक्षा से बंचित किया गया और इसके ज्ञान के अभाव में अधर्मियो और विधर्मियो द्वारा सनातन हिन्दू धर्म पर होने वाले कुतर्कों और आलोचनाओं का उचित जबाब सनातन हिन्दू नही दे पाता है। इसलिए सभी सनातन हिन्दूओं को अपने धर्म और संस्कृति का अध्ययन किसी न किसी तरह अवश्य करना चाहिए। सनातन हिन्दू धर्म एक अध्यात्मिक विज्ञान है।

मैने सनातन हिन्दू धर्म का एक संक्षिप्त सार सनातन हिन्दूओं को अपने धर्म की जानकारी के लिए प्रस्तुत किया है।

#सनातन_हिन्दू_धर्म_

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ओम् तत् सत् परब्रह्म परमेश्वराय परमात्मने नमः।

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सम्पूर्ण ब्रह्मांड का रचयिता व नियंत्रक परव्रह्म है। परब्रह्म ब्रह्मांड से परे है और ब्रह्मांड का रचयिता है। परव्रह्म ही ब्रह्मांड का पोषक कर्ता है इसलिए वह परमेश्वर कहलाता है। परब्रह्म ही ब्रह्मांड में चेतन विन्यास कर्ता है इसलिए परमात्मा कहलाता है। परब्रह्म ने ब्रह्मांड में जब चेतन विन्यास अर्थात चेतना स्थापित किया तो गुण धर्म और प्रकृति की उत्पत्ति हुयी। गुण धर्म तीन प्रकार के होते है- १-सतो गुण, २-रजो गूण, ३-तमो गुण। जब ये तीन प्रकार के गुण धर्म उत्पन्न हूए तो परब्रह्म ने स्वयं को ब्रह्म अर्थात ईश्वर के तीन रूप हैं प्रकट किया। ये ब्रह्म अर्थात ईश्वर है- १- बिष्णु, 2-ब्रह्मा, 3-रूद्र अर्थात शिव। विष्णु सतो गुण स्वरूप है, ब्रह्मा रजो गुण स्वरूप हैं, और रूद्र अर्थात शिव तमो गुण स्वरूप है। उसके बाद इसके बाद आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी और ग्रहो की उत्पत्ति हुई। इसकै बाद सृष्टि की उत्पत्ति हुई। इस सृष्टि में देव अर्थात देवता, दानव अर्थात असुर, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, मनुष्य, पशु, पक्षी, बनस्पतियां कीट आदि 84 लाख योनियां है। ( यहां हमने किन्नर शब्द भी कहा है यह किन्नर शब्द थर्ड जेंडर के सन्दर्भ में नही है)

देव या देवता दिव्य और दाता होते है। ये ईश्वरीय गुणों और शक्तियों के पात्र होते है और ईश्वरीय गुणों और शक्तियो से सम्पन्न होते है।

ईश्वर भी दिव्य और दाता होता है इसलिए ईश्वर को भी देव या देवता कहा जाता हैं।

परब्रह्म निराकार, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। जो निराकार और सर्वशक्तिमान होगा वह किसी भी रुप में साकार हो सकता है।

गृहस्थ जीवन में रहने वाले समान्य लोगों का मन तमाम कारणों से भटकता रहता है, इसलिए ईश्वर व देवताओं से स्वयं को जोड़ने के लिए और आराधना हेतु स्वयं को केन्द्रित करने के लिए मुर्ति पूजा एक माध्यम है।

सम्पूर्ण ब्रह्मांड, प्रकृति और सृष्टि का निर्माण परब्रह्म परमेश्वर परमात्मा ने किया है। सम्पूर्ण ब्रह्मांड, प्रकृति और सृष्टि के चेतना में परब्रह्म परमेश्वर परमात्मा का ही अंश प्राण अर्थात आत्मा के रूप में है। इसलिए सनातन हिन्दू धर्म में प्रकृति को भी ईश्वर का रुप माना जाता है और नदी, पेड़, गाय आदि महत्वपूर्ण चीजो की पूजा की जाती है।

सनातन हिन्दू धर्म में आत्मा को परब्रह्म परमेश्वर परमात्मा का अंश कहा गया है और कहा गया है कि यदि परब्रह्म परमेश्वर परमात्मा को जानना हो तो पहले स्वयं को जानो, अपनी आत्मा को जनो अर्थात आत्म ज्ञान प्राप्त करो और इनकी खोज अपने अंदर करो।

ऋग्वेद के ऐतरेय उपनिषद का महावाक्य है "प्रज्ञानं ब्रह्म" अर्थात प्रज्ञान अर्थात प्रकट ज्ञान ही ब्रह्म है। आत्मज्ञान अर्थात अपनी आत्मा का बोध ही  ब्रह्म वोध है। वह ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म जानने योग्य है और ज्ञान गम्यता से परे भी है। वह विशुद्ध-रूप, बुद्धि-रूप, मुक्त-रूप और अविनाशी रूप है। वही सत्य, ज्ञान और सच्चिदानन्द-स्वरूप ध्यान करने योग्य है। वह परमात्मा सभी प्राणियों में जीव-रूप में विद्यमान है। वह सर्वत्र है। वह सभी में समाया हुआ है।

यजुर्वेद के बृहदारण्यक उपनिषद का महावाक्य है "अहम् ब्रह्मास्मि" अर्थात मै ब्रह्म हूँ।

सामवेद के छान्दोग्य उपनिषद का महावाक्य है "सर्वं खल्विदं ब्रह्मम्" अर्थात सब ब्रह्म ही है।

अथर्ववेद के माडूक्य उपनिषद का महावाक्य है "अयम् आत्मा ब्रह्म" अर्थात यह आत्मा ब्रह्म है। यदि मनुष्य अपनी आत्मा के विषय में जान लेगा अर्थात आत्मा ज्ञान प्राप्त कर लेगा तो ब्रह्म अर्थात ईश्वर को जान जायेगा और ईश्वर को जानने पर परब्रह्म को जान जायेगा। 

सनातन हिन्दू धर्म में ब्रह्म अर्थात ईश्वर को जानने और प्राप्त करने का तीन मार्ग बताया गया है।

१-ज्ञान योग

२-कर्म योग

३-भक्ति योग

ज्ञान योग के अनुसार आत्मज्ञान प्राप्त करके ईश्वर को जाना जा सकता है। इसके लिए अपनी आत्मा का ध्यान करने और और स्वयं को जागृत करने का प्रावधान है। इस मार्ग को योगी ऋषि और महर्षि अपनाते है।

कर्म योग के अनुसार मनुष्य द्वारा निस्वार्थ भाव से स्वयं का हित देखे बिना और बिना फल की इच्छा से जीव जगत के कल्याण हेतु कर्म करने पर ईश्वर अपनी शक्तियां उस मनुष्य को प्रदान करने लगता है इसके बाद मनुष्य स्वयं ईश्वर का बोध करने लगता है। गीता में कर्म योग का ज्ञान दिया गया है।

भक्ति योग के अनुसार ईश्वर की भक्ति करते हूए स्वयं को ईश्वर को समर्पित करके ईश्वर की शरण में रहकर मनुष्य ईश्वर का बोध कर सकता है। 

   ___राजेश मिश्रा_

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